अधिकारों के दुरूपयोग से भ्रष्टाचार मामले में सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
नई दिल्ली, 3 मार्च। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court ने माना कि अधिकार के दुरुपयोग (misuse of powers) का मात्र आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC Act) की धारा 20 के तहत तब तक धारणा को जन्म नहीं देगा, जब तक कि अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति का सबूत न हो। पीसी एक्ट की धारा 20 यह मानती है कि कोई सरकारी कर्मचारी, जो अनुचित लाभ स्वीकार करता है, उसने ऐसा किसी उद्देश्य या अवार्ड के रूप में किया। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पीसी एक्ट की धारा 20 के तहत धारणा तब तक नहीं बनेगी, जब तक कि अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति का साक्ष्य स्थापित न हो जाए। कोर्ट ने कहा कि अधिकार के दुरुपयोग का मात्र आरोप, उदाहरण के लिए, वर्तमान मामले में निविदा प्रक्रिया का पालन न करना, स्वचालित रूप से भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है, जब तक कि अवैध रिश्वत का साक्ष्य न हो।
दिलीपभाई नानूभाई संघानी बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य मामले में सुनवाई करते हुए न्यायालय ने कहा, “जब तक न्यायालय को संतुष्टि के लिए यह सुबूत नहीं दिया जाता कि अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति है, तब तक यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अपीलकर्ता द्वारा सही रूप से इंगित किए गए अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति के आरोप मात्र से अधिनियम की धारा 20 के तहत अनुमान नहीं लगाया जा सकता।” जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता-लोक सेवक ने कथित तौर पर निविदा प्रक्रिया के बिना मछली पकडऩे के ठेके देकर सरकार की मौजूदा नीति से हटकर अपने अधिकार का दुरुपयोग किया, जिससे राज्य के खजाने को करोड़ों का नुकसान हुआ।
हाईकोर्ट का मामला रद्द करने से इंकार, सुप्रीम कोर्ट में अपील
उसके खिलाफ पीसी एक्ट के तहत मामला इस आधार पर दर्ज किया गया कि उसने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया, जिससे राज्य के खजाने को नुकसान हुआ। इस प्रकार वह भ्रष्ट आचरण के लिए मुकदमा चलाने के लिए उत्तरदायी है। भ्रष्टाचार का मामला रद्द करने से हाईकोर्ट के इनकार करने पर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि अपने अधिकार का दुरुपयोग करके अवैध रिश्वत स्वीकार करने का मात्र आरोप ही उसे भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसाने के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति का साक्ष्य दिखाने में अभियोजन पक्ष की विफलता अभियोजन पक्ष के मामले को अमान्य कर देगी।
मात्र आरोपों से भ्रष्टाचार की पुष्टि नहीं
अपीलकर्ता के तर्कों में मैरिट देखते हुए जस्टिस के. विनोद चंद्रन द्वारा लिखित निर्णय ने कहा कि अधिकार का दुरुपयोग करके रिश्वत की मांग और स्वीकृति के मात्र आरोपों से भ्रष्टाचार की पुष्टि नहीं होगी, जब तक कि अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति को साक्ष्य के माध्यम से साबित नहीं किया जाता। अदालत ने कहा, “जैसा कि हमने देखा, जांच रिपोर्ट में अपीलकर्ता के खिलाफ रिश्वत की मांग और स्वीकृति के किसी भी आरोप के बिना केवल अधिकार के दुरुपयोग के आरोप की बात की गई। अधिनियम की धारा 20 के तहत यह अनुमान है कि यदि रिश्वत की मांग और स्वीकृति है तो यह अनुमान है कि यह किसी लोक सेवक द्वारा बेईमानी से कुछ गतिविधि को अंजाम देने के लिए है, जिसके लिए सबसे पहले मांग और स्वीकृति का सुबूत पेश करना होगा। ऐसा नहीं है कि यदि अधिकार का दुरुपयोग होता है तो हमेशा रिश्वत की मांग और स्वीकृति की धारणा होती है, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार का वैध आरोप बनता है।”
नीरज दत्ता बनाम राज्य
अदालत ने नीरज दत्ता बनाम राज्य 2022 के मामले का संदर्भ दिया, जहां यह माना गया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत भ्रष्टाचार स्थापित करने के लिए अवैध रिश्वत की मांग और स्वीकृति का सुबूत एक अनिवार्य शर्त है। अदालत ने कहा, “हम अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए तर्क को स्वीकार करते हैं कि जांच रिपोर्ट, शिकायतकर्ता या पुलिस अधिकारियों से दर्ज किए गए आरोप-पूर्व बयानों या यहां तक कि जांच दल द्वारा पूछताछ किए गए व्यक्तियों के बयानों से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत प्रावधानों की सामग्री को आकर्षित करने के लिए एक कण भी सामग्री उपलब्ध नहीं है।” उपर्युक्त के संदर्भ में अदालत ने अपील स्वीकार की और अपीलकर्ता के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही रद्द कर दी। (लाइवलॉ से साभार)
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