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सूचना आयोग ने सूचना नहीं देने पर सहकारिता आयुक्त को अर्थदंड लगाया, कहा – सरकारी कर्मचारी का जाति प्रमाण पत्र आरटीआई के तहत पब्लिक डॉक्यूमेंट

भोपाल, 21 फरवरी। सहकारिता विभाग में कार्यरत एक कर्मचारी के जाति प्रमाण पत्र को सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) केे अंतर्गत आवेदक को उपलब्ध नहीं कराने पर राज्य सूचना आयोग ने सहकारिता आयुक्त पर एक हजार रुपये का अर्थदंड लगाया। आयोग ने अपने निर्णय में कहा कि सरकारी नौकरी में दिया गया जातिप्रमाण पत्र सार्वजनिक दस्तावेज है, उसे आरटीआई के तहत उपलब्ध कराने से इंकार नहीं किया जा सकता।

यह मामला जबलपुर के सहकारिता विभाग का है, जिसमें मध्य प्रदेश सहकारिता आयुक्त के कार्यालय से सम्बंधित हैं, जिसमें राज्य सूचना आयुक्त राहुल सिंह ने महत्वपूर्ण निर्णय में सरकारी नौकरी में दिए गए जाति प्रमाण पत्र को पब्लिक डॉक्यूमेंट माना है। सिंह ने अपने आदेश मे स्पष्ट किया जिस आधार पर नौकरी और पदोन्नति मिलती है, उस जानकारी को व्यक्तिगत होने के आधार पर रोकना अवैध है। सिंह ने प्रकरण मे हुई लापरवाही के लिए सहकारिता आयुक्त को जिम्मेदार मानते हुए, उसे आदेश दिया कि वह सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी मांगने वाली महिला को 1000 रुपये बतौर क्षतिपूर्ति अदा करे और चाही गयी सूचना नि:शुल्क उपलब्ध कराये।

जबलपुर के सहकारिता विभाग में कार्यरत ममता धनोरिया ने इसी कार्यालय में काम करने वाली एक अन्य सहयोगी हेमलता हेडाऊ की जानकारी आरटीआई के तहत मांगी थी, जिसमें उसके जाति प्रमाण पत्र की प्रमाणित प्रति भी मांगी गयी थी। हेमलता ने ममता के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत पुलिस केस दर्ज करवा रखा है। उपायुक्त सहकारिता विभाग जबलपुर ने कर्मचारी के सम्बंध में जानकारी को व्यक्तिगत बताते हुए उपलब्ध कराने से इंकार कर दिया। ममला ने इसके विरुद्ध राज्य सूचना आयोग में अपील की। अपील पर सुनवाई के उपरांत आयोग ने ममता के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए राज्य सूचना आयुक्त राहुल सिंह ने अपने आदेश में कहा कि शासकीय नौकरी में नियुक्ति के समय लगाए गए जाति प्रमाणपत्र जैसे दस्तावेज आरटीएक्ट की धारा 2 के तहत पब्लिक दस्तावेज है। इसे अक्सर अधिकारी धारा 8(1)(जे) के तहत व्यक्तिगत दस्तावेज बता कर रोक देते हैं।

जाति प्रमाण पत्र व्यक्तिगत जानकारी नहीं

सिंह ने माना कि सरकारी नौकरी में जाति के आधार पर नियुक्ति/प्रमोशन आदि की व्यवस्था नियम-कानून अनुरूप होती है, यह विभाग में सभी के संज्ञान में होता है, ऐसे में जानकारी व्यक्तिगत होने का आधार नहीं बनता है। उन्होंने कहा कि फर्जी जाति प्रमाणपत्र के रैकेट प्रदेश में उजागर होते रहे हैं, ऐसी स्थिति में आरटीआई के तहत प्रमाण पत्रों देने से इनकी प्रमाणिकता की पारदर्शी व्यवस्था सुनिश्चित होगी, साथ ही, भर्ती प्रक्रिया में जवाबदेही भी सुनिश्चित होगी।

जिसने केस दर्ज करवा रखा है, उसकी जाति जानने का हक

सूचना आयुक्त ने तीसरे पक्ष कि इस दलील को खारिज कर दिया कि मप्र हाई कोर्ट ने एक अन्य निर्णय में जाति प्रमाण पत्र देने के फैसले पर स्थगन दिया हुआ है। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट का निर्णय इस मामले में प्रभावी नहीं होता क्योंकि यहां जाति प्रमाणपत्र को संदिग्ध बताया गया है। साथ ही, आवेदक के खिलाफ प्रतिवादी ने एससी-एसटी एक्ट का केस दर्ज करवा रखा है, इसलिए स्थिति में सूचना देने से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि आवेदन का यह जानने का पूरा हक है कि उसके खिलाफ प्रकरण दर्ज करवाने वाले की जाति क्या है?

सूचना आयुक्त ने निर्णय में लिखा कि आरटीआई एक्ट की धारा 8(1)(जे) में व्यक्तिगत जानकारी का आधार बनता है लेकिन इसी धारा के अनुसार जो जानकारी विधानसभा या संसद को देने से मना नहीं कर सकते हैं, वह जानकारी अधिकारी किसी व्यक्ति को देने से मना नहीं कर सकते हैं।

आपत्ति के आधार पर जानकारी नहीं रोक सकते

सूचना आयुक्त राहुल सिंह ने अपने निर्णय में उल्लेख किया कि छिंदवाड़ा तहसील कार्यालय ने एक अन्य आरटीआई में हेमलता के जाति प्रमाणपत्र को संदिग्ध बताया गया है, ऐसी स्थिति में प्रकरण में न्याय की दृष्टि से भी जाति प्रमाणपत्र आरटीआई में दिया जाना उचित है। आयोग ने अपने निर्णय में आवेदन को 15 दिन में आरटीआई के तहत चाही गयी जानकारी उपलब्ध कराने का आदेश दिया। आयोग ने स्पष्ट किया कि धारा 11 तीसरे पक्ष से आपत्ति लेने की प्रक्रिया मात्र है। केवल आपत्ति के आधार पर ही जानकारी को रोकना गलत है। आपत्ति आने के बाद सूचना अधिकारी को देखना है कि व्यक्तिगत जानकारी का आधार बनता है या नहीं।

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