राज्यसहकारिता

यदि सिस्टम को सुधारा नहीं जाये तो यह जिम्मेदारों को बिगाड़ देता है…

जिन लोगों को सिस्टम सुधारने की जिम्मेदारी मिलती है, यदि वे सिस्टम को नहीं सुधारते, तो सिस्टम उन्हें बिगाड़ देता है, यह कड़वा सच है। पिछली दो सरकारों के कार्यकाल में सहकारिता आंदोलन पर नजर डालें तो यही निचोड़ निकल कर आता है कि सिक्कों की चकाचोंध में, सिविल लाइन्स वालों की चुंधियाई आंखों को केवल वही नजर आया, जो सिक्कों वालों ने उन्हें दिखाया। पांच साल के कार्यकाल के पश्चात, उन्हें सहकारी आंदोलन के विलेन के रूप में याद किया जा रहा है। इस बार भी जब सरकार के गठन की तैयारी चल रही थी, जो सिस्टम से आहत लोगों की जुबान पर एक ही फरियाद थी कि हे परमात्मा पुराने वालों से बचाना। प्रताड़ित लोगों की जुबान पर मां सरस्वती विराजमान थी, इसलिए ईश्वर ने उनकी सुन ली और सहकारिता राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के रूप में गौतम कुमार दक नये खेवनहार के रूप में सबके समक्ष हैं।

सहकारिता राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) गौतम कुमार दक

मंत्री के रूप में सिस्टम को सुधारने के साथ-साथ, यदि वे कुछ दागों को भी समय रहते धोने का बीड़ा उठा लें, तो यह सहकारिता आंदोलन के प्रत्येक हितचिंतक के लिए शुभ संकेत होगा। सहकारिता आंदोलन की सफेद चादर पर ये कुछ लोग जो काली स्याही के रूप में कुटिल मुस्कान लिये बैठे हैं, यदि किसी प्रकार से इनसे छुटकारा मिल जाये, तो फिर उम्मीरों की नयी रोशनी से देश-प्रदेश में सहकारी आंदोलन की जगमग को कोई रोक नहीं सकता। हाल के वर्षों में दो बड़े नासूर थे, जो समय के साथ दूर हो गये। एक पिछले साल सेवानिवृत्त हो गया और दूसरे को इस साल अदालत कार्यवाही के आधार पर राज्य सरकार ने निपटा दिया। हालांकि, इन दोनों के कर्मफल ने अभी इनका पीछा छोड़ा नहीं है। क्योंकि ये पाप का घड़ा नहीं, बल्कि पातालतोड़ कुआं थे।

ये जो दूसरे थे, इनके कार्यकाल में, राजस्थान का सबसे पुराना केंद्रीय सहकारी बैंक लिमिटेड, अजमेर समाचार पत्रों में नियमित रूप से नकारात्मक प्रचार का केंद्र बिन्दू बना रहा। अब भी ऐसे कई अफसर हैं, जो अपने भ्रष्ट रवैये के कारण एसीबी की चपेट में आने के बाद से, या तो एसीबी की जांच का सामना कर रहे हैं, या उनके खिलाफ एसीबी की विशेष अदालतों में मामले की सुनवाई चल रही है, लेकिन वे जिम्मेदार लोगों के ‘बिगड़ जाने के कारण’ लगातार फील्ड पोस्टिंग लेते रहे। ऐसे ही संदिग्ध आचरण वाले अफसरों के पास तीन-तीन जिलों के इकाई अधिकारियों का चार्ज रहा। दो-दो जिलों के इकाई अधिकारी का चार्ज तो वर्तमान में भी है, जबकि शुचिता और जीरो टॉलरेंस एगेंस्ट क्रप्शन की बात करें तो ऐसे अफसर कभी ऐसी सीट पर नहीं होने चाहियें, जहां वे अपने क्षेत्र में रजिस्ट्रार, सहकारी समितियां, राजस्थान का प्रतिनिधित्व करते हों। उप रजिस्ट्रार के रूप में एक इकाई अधिकारी अपने जिले का रजिस्ट्रार ही होता है, क्योंकि कानूनन रजिस्ट्रार की शक्तियां उनमें निहित हैं। पिछले लगभग डेढ़ दशक से यानी 10 साल से 15 साल तक के कार्यकाल में ऐसे भी उदाहरण हैं, जब सहायक रजिस्ट्रार होते हुए केंद्रीय सहकारी बैंक के प्रबंध निदेशक बनाये गये चंद सहकारी अफसरों ने विभिन्न बैंकों में रहते-रहते ही पहले उप रजिस्ट्रार और फिर ज्वाइंट रजिस्ट्रार का प्रमोशन प्राप्त कर लिया और इस दौरान आयी प्रत्येक सरकार ने, केंद्रीय सहकारी बैंक में उनकी ताजपोशी को बरकरार रखा। कारण वही – सिस्टम को सुधारने वाले लोगों का स्वयं बिगड़ जाना।

बिगड़ने-बिगाड़ने का मूल कारण यही रहा कि मंत्री, प्रमुख शासन सचिव और सहकारिता रजिस्ट्रार के नजदीक उन्हीं शातिर लोगों की चौकड़ी ने डेरा डाले रखा, जो सिस्टम में किसी भी प्रकार के सुधार के सख्त खिलाफ थे। (सहकारिता सेवा के अधिकारियों की ट्रांसफर, पोस्टिंग, डेपुटेशन के मामले में रजिस्ट्रार की भूमिका नगण्य रहती है, लेकिन सहकारी निरीक्षक स्तर तक कार्मिकों केस्थानांतरण, पदस्थापन और प्रतिनियुक्ति पर रजिस्ट्रार का पूरा नियंत्रण होता है) चूंकि, मलाईदार पदों पर रहने वालों के लिए बिगड़ा हुआ सिस्टम ही परमानंद का मार्ग प्रशस्त करता है, इसलिए ऐसे लोग कभी नहीं चाहते कि विभाग में ट्रांसफर-पोस्टिंग की पोलिसी बने और संस्थाओं/विभागीय पदों पर कैडर के अनुरूप पदस्थापन हो (भले ही हाईकोर्ट चिल्लाता मर जाये)।

ऐसे ही लोग जिम्मेदारों को बताते थे कि पैक्स वालों को कैसे निचोड़ा जाये। कर्मठ अधिकारियों को ट्रांसफर का भय दिखाकर उनकी एकड़ कैसे ढीली की जाये। संस्थाओं की अचल सम्पत्ति को कैसे ठिकाने लगाया जाये। संस्थाओं की भ्रुण हत्या के लिए उनके बराबर की सहकारी संस्थाएं कैसे खड़ी की जायें, जिनका नियंत्रण निजी लोगों के हाथ में हो। क्योंकि ये लोग जानते हैं कि संस्थाओं में तो प्रतिनियुक्ति का पद है। यदि कुछेक संस्थाएं मर भी जायेंगी या मृतप्राय: कर दी जायेंगी तो क्या फर्क पड़ने वाला हैं। वे तो अपना लैपटॉप वाला झोला उठाकर किसी और संस्था की घूमने वाली कुर्सी पर जम जायेंगे। ऐसे लोग, मंत्री या अन्य जिम्मेदार लोगों को यह कभी नहीं बताते कि ऑडिट का स्तर बहुत गिर गया है, इसे फिर से विभाग को सम्भालना जरूरी हो गया है। निरीक्षण तो बस नाम के ही हो रहे हैं। यदि कोई अफसर पांच-सात साल से एक ही संस्था में बैठा है तो फिर आप सहज ही अनुमान लगा लीजिये कि वहां शाखा प्रबंधक और कैशियर कितने सालों से एक ही ब्रांच में बैठे होंगे। ऐेस में आप बैंक और पैक्स स्तर के नैक्सेस को कैसे तोड़ पायेंगे?

इसलिए सिस्टम को सुधारने के लिए जरूरी है कि पहले जिम्मेदार लोग स्वयं इस नाकारा और क्रप्ट सिस्टम का हिस्सा बनने से बचें। संस्थाओं को नकारात्मक सोच वाले अफसरों की कलुषित छाया से मुक्त करायें और संस्थाओं को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी कर्मठ या फिर नये लोगों को दी जाये। देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस दृढ इच्छाशक्ति और राजनीतिक दूरदृष्टि से, तीन राज्यों में मठाधीश बने बैठे पुराने नेताओं को दरकिनार कर, जनरेशन चेंज का साहसिक कदम उठाया है, क्या हम उनके नक्शे-कदम पर चलते हुए सहकारी आंदोलन के मठाधीशों की चुनौती की धार कुंद नहीं कर सकते। जो लोग लम्बे समय से संस्थाओं पर काबिज हैं, क्षेत्रीय अंकेक्षण अधिकारी के रिक्त पद और प्रधान कार्यालय में, सैकिंड रैंक के दर्जनों रिक्त पद उनके इंतजार में व्याकुल हैं। इस बिगड़ैल सिस्टम को सुधारने के लिए कुछ ठोस कदम तो उठाने ही होंगे।

– मनीष मुंजाल, सम्पादक, सहकार गौरव

 

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