मुखपत्र

कहि-सुनी : शीशमहल की मोह – माया

मोह अर्थात किसी व्यक्ति या वस्तु या विचार से अत्यधिक लगाव। माया अथार्त भ्रम, एक ऐसा भ्रम या भ्रामक स्वभाव जो क्षणभंगुर है, लेकिन हमें लगता है कि यह स्थायी है। मोह-माया में फंसा व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि यह दुनिया और इसकी तमाम सुख-सुविधाएं अस्थायी हैं। यह भ्रम व्यक्ति को परम सत्य और जीवन के असली उद्देश्य से भटकाये रखता है। माया में जकड़े व्यक्ति को लगता है कि ये सहकारिता का शीशमहल, ये सीईओ की कुर्सी, ये चापलूस चंडाल चौकड़ी और इस शीशमहल मेें रखी अपार धन संपदा, ये सब कुछ मेरा ही तो है। स्थायी रूप से। स्वयं द्वारा अर्जित। इसी भ्रम में, जो जी में आता है, जिसके लिए जी में आता है, बांट रहे हैं, अपने हाथ कटवाकर। भ्रम है कि मुखिया जी सर्वेसर्वा हैं, सब कुछ संभाल लेंगे। दूसरी दुकान वालों के उत्सव का खर्च उठाने और सूखे मेवों की सेवा का कुछ तो प्रतिफल मिलेगा।

अफसोस! श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर भी इस परम सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे कि ये जीवन ही क्षण भंगुर है। इस शीशमहल में कुछ भी अपना नहीं है। ये लोग, जो आज आपकी मेज के दूसरी तरफ आकर चरण-चाकरी को अपना परम सौभाग्य मानते हैं और आपके अंदर सुपरपावर होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, ये जो चापलूसी की पराकाष्ठा में सब कुछ चाटने को आतुर रहते हैं और आपके वास्तविक शुभचिंतकों से आपको दूर करते हैं, यही लोग, जिस दिन आप यहां से विदा कर दिये जाओगे, आपको शीशमहल के बाहरी द्वार तक टाटा- बाय-बाय करने भी नहीं आयेंगे। यही निष्ठुरता यहां की परम्परा है। आपके पूर्ववर्ती भी इसी मोह-माया का शिकार होकर, अकेले ही यहां से विदा हुए थे। वे जिनको शाखाओं से उठाकर शीशमहल में लाये थे, वे वे चरण चाकर पहली मंजिल तक भी विदा करने नहीं आये थे। आपको भी विदा करने कोई नीचे तक नहीं आयेगा, बल्कि आपकी विदाई से पहले ही, नये वाले की चरण चाकरी शुरू हो जायेगी।

भले ही आप फर्जी काम करने वालों से कितनी भी आत्मियता रखें, उच्च स्तर पर प्राप्त स्पष्ट निर्देश के बावजूद उनका 16 शृंगार करने में कितना भी विलम्ब करें, जयचंदों को शाखाओं से या चंबल से लाकर शीशमहल में बैठायें या क्षेत्रीय कार्यालयों से लाकर कितना भी आश्रय प्रदान करें, उन्हें क्षेत्रीय कार्यालयों में लगाने की बजाय शीशमहल में एक-एक अनुभाग में दो-दो अफसरों को सैट करें, इनको गुलाबी नगरी में बिठाये रखने के लिए तबादला नीति को लागू नहीं करें या आर्थिक प्रतिफल की उम्मीद में इन्हें किसी भी पद पर सुशोभित करें, देर से आने और शाम को जल्दी घर लौट जाने और समय पर आकर फिर दिनभर के लिए शीशमहल से गायब रहने की छूट दें, दोस्ती के नाते कितनी ही साधन-सुविधाएं उपलब्ध करायें, दीपावली का त्यौहार मनाने के लिए करोड़पति “निर्धन” फर्म की आर्थिक सहायता करें, मैडम की अनुपस्थिति में खर्च की परवाह किये बिना सर्दी-गर्मी के गणवेश एक साथ बांटे या डिफाल्टरों को बहाल करें या डिफाल्टरों को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर ज्वाइन करायें…., आपकी विदाई के समय इनमें से एक भी, आपके आसपास दिखाई नहीं देगा।

जब व्यक्ति शरीर का त्याग करता है, तब अंतिम संस्कार के समय अपने चार लोग कंधा देने तो आ जाते हैं, लेकिन आप जब पद त्याग करेंगे या आपसे पद का त्याग करवा लिया जायेगा, तब यहां आपको यहां एक भी मित्र नहीं मिलेगा। शीशमहल की आबोहवा में सीमित वफादारी है, जो व्यक्ति को नहीं, बल्कि पहले तल के वातानुकूलित चैम्बर में रिवाल्विंग चेयर पर बैठे सीईओ को सेल्यूट करना सिखाती है। इसलिए जितनी जल्दी हो सकता है शीशमहल की मोह-माया और यहां गाहे-बगाहे फैले हुए चेले-चपटों के चापलूस बंधन से मुक्त हो जाइये, वरना अभी तो मैडम ने एक ही बार सोलह शृंगार किया है, कहीं ऐसा नहीं हो कि सरकारी सेवा से विदाई की बेला में, शेष बची अवधि में हर महीने सोलह शृंगार की नौबत आन पड़े।

कहते हैं कि मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु बेतहर होता है। एक नासमझ दोस्त अनजाने में भी बहुत नुकसान पहुंचा सकता है (आपको तो बहुत अधिक नुकसान पहुंचा चुके हैं), जबकि एक समझदार शत्रु केइरादे स्पष्ट होते हैं और आप उससे सावधान रह सकते हैं। मूर्ख मित्रों और चापलूसों से मुक्ति पाइये। संत कबीरदास भी यही कहा करते थे – निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय अर्थात जो आपकी निंदा करता है, उसे अपने से दूर नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे अपने पास रखना चाहिए। उसके लिए आंगन में ही एक झोपड़ी जैसी जगह बना देनी चाहिए, ताकि वह हमेशा आपकी कमियां बता सके और आपकी कमियों को बताकर, बिना किसी शारीरिक सफाई के ही, आपके स्वभाव (चरित्र) को साफ कर सके। इति! ((प्रस्तुत इमोजी सोशल मीडिया से साभार)

 

 

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