बरेली, 6 फरवरी। एंटीबायोटिक दवाएं घातक नहीं, लेकिन उनके अधिक प्रयोग से जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। एंटीबायोटिक्स के विकल्प के रूप में कई जीव और कीट-पतंगों से भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (I.V.R.I.) के वैज्ञानिक डॉ. समीर श्रीवास्तव ने चार ऐसे मॉलिक्यूल खोजे हैं, जो परीक्षण में सफल रहे। अब वैज्ञानिक क्लिनिकल ट्रायल की तैयारी में जुटे हैं। इसका उद्देश्य जीवाणुओं से जनहानि रोकना है।
भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान में पशु जैव प्रौद्योगिकी विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. समीर श्रीवास्तव के अनुसार, मॉलिक्यूल (पेपटाइड्स) को एंटीबायोटिक के विकल्प के रूप में खोजने का कार्य चार साल पहले शुरू हुआ था। बीएचयू आईआईटी के कम्प्यूटर साइंस विभाग में उपलब्ध परम शिवाय सुपर कंप्यूटर की मदद से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस द्वारा पेपटाइड खोजने की शुरूआत हुई। इसके लिए मेंढक और अन्य कीट-पतंगों के प्रोटीन को चुना गया। इन जीवों की त्वचा पर ऐसे मॉलिक्यूल्स होते हैं, जो जीवाणुओं को स्वत: ही नष्ट कर देते हैं। विश्व में लगभग तीन हजार ऐसे पेपटाइड खोजे गए हैं। वैज्ञानिकों का उद्देश्य ऐसे पेपटाइड खोजने का रहा, जो कम मात्रा मेें बेहतर परिणाम दें और साइड इफेक्ट न हो।
110 मॉलिक्यूज खोजे गये
अब तक 110 मॉलिक्यूल खोजे गए हैं, इनमें चार हर मानक पर सटीक रहे। 106 मॉलिक्यूल भी एंटीबायोटिक का विकल्प बन सकते हैं परन्तु उन पर और टेस्ट करने बाकी हैं। टेस्ट के लिए चूहों में घाव बनाकर और उन्हें दागकर बैक्टीरिया (जीवाणु) से संक्रमित किया गया। फिर मॉलिक्यूल पेपटाइड दिए गए। कई प्रयोग के बाद भी दुष्प्रभाव नहीं दिखा। अब क्लिनिकल ट्रायल की तैयारी है।
क्रीम के रूप में उपयोग किए जा सकेंगे पेपटाइड
डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, मॉलिक्यूल को क्रीम के रूप में विकसित कर लिया है। क्लिनिकल ट्रायल के लिए एक फार्मा इंडस्ट्री से वार्ता चल रही है। उम्मीद के अनुसार परिणाम मिलने पर क्रीम के तौर इसका प्रयोग किया जा सकेगा। उन्होंने भविष्य में मॉलिक्यूल्स को इंजेक्शन के रूप में उपयोग करने की उम्मीद जताई।
मॉलिक्यूल्स खोजने की क्यों पड़ रही जरूरत
साल 1927 में ‘पेनिसिलीन’ के तौर पर पहली एंटीबायोटिक खोजी गई थी, फिर लगभग सौ साल तक एंटीबायोटिक पर शोध होते रहे। जब नई एंटीबायोटिक विकसित हुई तो जीवाणु भी इसके हमले से खुद को बचाने के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित करते रहे। लिहाजा, दो एंटीबायोटिक के कॉम्बिनेशन प्रयोग किए जाने लगे। यह भी कारगर रहा। इससे निपटने के लिए भी जीवाणुओं ने खुद को ढाला। इसलिए मॉलिक्यूल खोजने की जरूरत पड़ी।
तीन दशक में नहीं खोजी गई नई क्लास की एंटीबायोटिक
पिछले तीन दशक में कोई नई एंटीबायोटिक नहीं आई है। पुरानी एंटीबायोटिक के प्रति जीवाणुओं ने प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। वजह रही कि फार्मा इंडस्ट्री ने इसके बजाय एंटी कैंसर, एंटी वायरल, एंटी डायबिटिक, न्यूरो ड्रग आदि पर ज्यादा जोर दिया। वर्तमान में पुरानी एंटीबायोटिक खाई जा रही हैं, जो बेअसर हैं। लिहाजा, डोज बढ़ती जा रही है। इसलिए वैज्ञानिक अब नए तरीके खोज रहे हैं। पिछले दिनों देहरादून में यूनिसेफकी ओर से आयोजित वर्चुअल वर्कशॉप में भी एंटीबायोटिक के बढ़ते प्रयोग और दुष्प्रभाव पर विशेषज्ञों ने चिंता जाहिर की थी।
वे जीवाणु जिनमें विकसित हो चुका है रेसिस्टेंस
डॉ. समीर श्रीवास्तव के अनुसार, स्टेफिलोकोक्कस, क्लेब्सिएला, एसिनोबेक्टर, सुडोमोनाश, ईकोलाई, स्ट्रैप्टॉकोक्स वे बैक्टीरिया हैं, जिनमें रेसिस्टेंस बन गए हैं। आमतौर पर आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं जीवाणुओं की चपेट में रहता है। वर्तमान में डॉ. श्रीवास्तव की लैब में 21 दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम चल रहा है। इसमें देश के विभिन्न प्रदेश के 25 वैज्ञानिक प्रतिभागी कर रहे हैं, जिन्हें पेपटाइड बनाने की प्रक्रिया के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। (अमर उजाला )