कृषि राज्य सरकार का विषय होने के बावजूद केंद्र सरकार द्वारा कृषि में जबरिया हस्तक्षेप कर लाये गये तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने की मांग पर किसानों के आंदोलन को डेढ़ महीने से अधिक समय हो गया है। हाड़ कम्पकपाती सर्दी के बीच खुले आसमान के तले 50 से अधिक अन्नदाता अपनी जान गंवा चुके हैं। किसान संगठनों व केंद्र सरकार के बीच दस दौर की बेनतीजा वार्ता हो चुकी है। एक ओर जहां किसान संगठन कृषि कानूनों को वापिस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार किसी भी सूरत में कृषि कानून वापिस नहीं लेने का इरादा स्पष्ट कर चुकी है। सरकार संशोधन को तो तैयार है, लेकिन कानून वापिस नहीं लेने पर अडिग है। किसान संगठनों का तर्क है कि बिना रायशुमारी और संघीय ढांचे की परम्परा को तहस नहस करके लाये गये कृषि कानून जब तक वापिस नहीं लिये जाते, वे घर वापिस नहीं जायेंगे, भले इसके लिए उन्हें अगले आमचुनाव तक टिकरी बॉर्डर, शाहजहांपुर बार्डर सहित अन्य मौजूदा धरनास्थलों पर ही क्यों नहीं बैठ रहना पड़े।
ऐसी परिस्थितियों में सवाल उठता है कि मामले का समाधान कैसे हो। केंद्र सरकार ने बड़ी होशियारी से मामले को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचाया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय कमेटी को किसान संगठनों से सरकारी बताते हुए उसके समक्ष जाने से ही इंकार कर दिया, इससे सरकार की यह योजना भी धरी रह गयी। किसानों का कहना है कि जो कानून संसद में बने हैं, उन्हें संसद ही वापिस ले। इसके पश्चात कमेटी के एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने स्वयं को कमेटी से अलग करके सुप्रीम कोर्ट व सरकार की फजीती करवा दी। यानी जिस प्रकार, सरकार ने कृषि कानून बनाने से पहले किसानों, किसान संगठनों और राज्य सरकारों को विश्वास में नहीं लिया, उसी तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट ने भी, किसी भी पक्ष द्वारा कमेटी की मांग नहीं किये जाने के बावजूद हवा में तीर चलाते हुए चार व्यक्तियों की कमेटी बना दी, जो पहले से ही नये कृषि कानूनों के समर्थक रहे हैं।
‘ये सही है कि देश के कृषि क्षेत्र को बदलाव की आवश्यकता है। उसे पंजाब और हरियाणा की गेहूं-धान की खेती की संस्कृति से उबारने की भी आवश्यकता है। संभवत: न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनन अनिवार्य बनाने से इन फसलों की परिणति भी चीनी जैसी होगी। कीमतें असंगत हो जाएंगी और अधिशेष उपज का निर्यात असंभव हो जाएगा। इतना ही नहीं इससे निजी आंतरिक कारोबार और समग्र मांग भी प्रभावित होगी। चूंकि सरकार मौजूदा सरकारी खरीद का स्तर नहीं बढ़ा सकती, इसलिए किसानों की अधिशेष फसल बच जाएगी क्योंकि मूल्य समायोजन मुश्किल होगा। कानूनन न्यूनतम कीमत तय होने से बाजार को मुश्किल पेश आएगी। इसके अलावा गेहूं-धान की खेती के इस चक्र में पानी की कमी से जूझते इलाकों में भी पानी और रसायनों की भारी खपत होती है। पर्यावरण पर इसका बहुत बुरा असर होगा। फसल चक्र के सही नहीं होने से इस क्षेत्र के बंजर होने का खतरा भी है।’
इन तकनीकी समस्याओं के बावजूद, यदि हम लोकतंत्र में असहमति की बात करें तो देखेंगे कि सरकार इस मामले में पीछे हटने को हार के रूप में देख रही है, यह देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कतई उचित धारणा नहीं है। ऐसे कृषि कानून वापिस लेने में हिचक क्यों है जबकि वो किसानों को ही स्वीकार नहीं हैं। किसी को यदि बैंगन अच्छा नहीं लगता तो आप उसके लाख फायदे गिनवाकर भी, खुशी-खुशी नहीं खिला सकते। सरकार, कानूनों में संशोधन करने के लिए सहमति दे चुकी है, यानि वह कानून में खामियों को स्वीकार कर चुकी है। इसलिए ऐसा कानून लागू करने के लिए राजहठ क्यों जिसे किसान स्वीकार नहीं कर रहे और सरकार कमियों को स्वीकार कर रही है।
बेहतर विकल्प यही है कि लोकतंत्र में लोककल्याण की भावना से सरकार किसानों की बात सुने और सहर्ष कानून वापिस ले। फिर कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए नये सिरे से कानूनों पर विचार हो। चूंकि कृषि राज्य का विषय है, इसलिए राज्य सरकारों की भागीदारी व किसान संगठनों की सहमति ने नये कानून, यदि आवश्यक हो तो, बनाये जायें। राजनीति में राजधर्म होना चाहिए, राजहठ नहीं। हठ का देर-सबेर प्रतिफल हट (हट जाना) के रूप में ही मिलता है। भोजन को हम मां अन्नपूर्णा का वरदान मानते हैं, लेकिन उसी भोजन को पैदा करने वाले अन्नादाता को विरोधी मान बैठे हैं, यह दृष्टिकोण उचित नहीं है।
– मनीष मुंजाल, सम्पादक
सहकार गौरव/www.mukhpatra.in